मुझ में कितनें गाँव बसे हैं
कुछ उजड़े आबाद घने कुछ
कुछ यूँही नाराज़ खड़े हैं
बहते दरिया जंगल सुने
ख़ुश्क़ डालियाँ फूल सुनहरे
धुप छांव के रंग घनेरे
इक दुनिया है मेरे अंदर
मैं केवल शाहिद हूँ जिसमें
उठती गिरती लहरों का दुःख
उगते ढलते सूरज का ग़म
बेज़बान पत्तों का गिरिया
इक दुनिया है मेरे अंदर
मैं केवल शाहिद हूँ जिसमें
मिज़ा पर ठहरे जो आँसू
धुंदलाए आँखों के दरिया
देर तलक फिर बैठे गुमसुम
साथ जहां तक ठहरा ठहरे
गले मिले फिर निकले हमदम
अपना अपना कर्ब संजोए
इक दुनिया थी मेरे अंदर
मैं केवल शाहिद था जिसमें
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अनंत ढवळे
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