Saturday, May 15, 2021

ग़ज़ल

 तेज़ रौ में तेरी* बुझ चले 

अपनी सौते निहाँ के दिए 


आँख पलभर को मूंदी मगर 

कट गए जुग कई अन कहे 


बह रहा पानियों पर है क्या 

ढ़ेर लाशों के क्यूँ कर बिछे 


सर निगूँ हैं हवाएँ तो क्यूँ 

जिसने घोला ज़हर वो कहे 


एक तू क्या है एै जाँ मेरी 

कितने शाहों के परचम झुके 


अनंत ढवळे


* तिरी

सिनिकल माणसाचं इतिवृत्त

तुम्ही जगता - मौजमजा करता  मग यथावकाश मरता तुमच्या जागी दुसर कुणीतरी येत जग सुरू राहात काहीही बदलत नाही काहीही बदलणार नाही काही बदलण अपेक्षि...