Saturday, December 31, 2022

एक नज़्म

मुझ में कितनें गाँव बसे हैं 

कुछ उजड़े आबाद घने कुछ 

कुछ यूँही नाराज़ खड़े हैं 


बहते दरिया जंगल सुने 

ख़ुश्क़ डालियाँ फूल सुनहरे 

धुप छांव के रंग घनेरे 


इक दुनिया है मेरे अंदर 

मैं  केवल शाहिद हूँ जिसमें  


उठती गिरती लहरों का दुःख 

उगते ढलते सूरज का ग़म 

बेज़बान पत्तों का गिरिया 


इक दुनिया है मेरे अंदर 

मैं केवल शाहिद हूँ जिसमें  


मिज़ा पर ठहरे जो आँसू 

धुंदलाए आँखों के दरिया

देर तलक फिर बैठे गुमसुम 


साथ जहां तक ठहरा ठहरे 

गले मिले फिर निकले हमदम 

अपना अपना कर्ब संजोए 


इक दुनिया थी मेरे अंदर 

मैं केवल शाहिद था जिसमें 

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अनंत ढवळे   

Wednesday, December 21, 2022

1


हे उगाउगीचे हसणे रडणे खोटे
खोट्याची हद्द अशी की जगणे खोटे

गझला लिहिण्याची मौज हरवली कोठे
हे मात्रा मोजत बसणे-बिसणे खोटे

शब्दांची फिरवाफिरवी करणे कुठवर
हे अनंत ढवळे बनून फिरणे खोटे


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अनंत ढवळे

सिनिकल माणसाचं इतिवृत्त

तुम्ही जगता - मौजमजा करता  मग यथावकाश मरता तुमच्या जागी दुसर कुणीतरी येत जग सुरू राहात काहीही बदलत नाही काहीही बदलणार नाही काही बदलण अपेक्षि...