Wednesday, August 20, 2025

पडलीत किती मागे शेते हिरवाळी 
पाहतो जिथे घनदाट पांढरी आहे

जगण्याची सारी घालमेल उरलेली 
माझ्यात पुन्हा येऊन थांबली आहे 

वैतरणा माझ्या खोल अंतरामधली
बुडवेल एकदा मला माहिती आहे  


अनंत ढवळे 

Friday, August 15, 2025

An Urdu Ghazal

 کوئی کہدے تو بس بگڑتا ہوں 

ورنہ ہر گام پر پھسلتا ہوں 


پھر اسی راہ پر نکلتا ہوں 

پھر اسی کھیل میں الجھتا ہوں


اِس سے بہتر ہو کیا کے خوابوں میں 

اُس سے ملتا ہوں بات کرتا ہوں 


دھوپ ایسی سراب بھی پگھلے 

خوشق دریا سے گُھونٹ بھرتا ہوں 


دن سرکتا ہے رات ڈھلتی ہے 

ایک میں ہوں کے سر پٹکتا ہوں 


بس کے آساں ہے مجھ کو  سمجھانا 

ہر کھلونے سے جو بہلتا ہوں 


اننت ڈھَوَلے





कोई कह दे तो बस बिगड़ता हूँ
वरना हर गाम पर फिसलता हूँ 

फिर उसी राह पर निकलता हूँ
फिर उसी खेल में उलझता हूँ  

इस से बेहतर हो क्या के ख़्वाबों में
उस से मिलता हूँ बात करता हूँ 

धूप ऐसी सराब भी पिघले
ख़ुश्क़ दरिया से घूँट भरता हूँ 

दिन सरकता है रात होती है
एक मैं हूँ के सर पटकता हूँ 

बस के आसाँ है मुझको समझाना
हर खिलौने से जो बहलता हूँ


अनंत ढवळे